इंदिरा गांधी को देखनी पड़ी थी फिल्म
- अरुण कुमार बंछोर
1962 में निर्मित भोजपुरी फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबोÓ देखकर मनु नायक ने सोच लिया था कि उन्हें अपनी छत्तीसगढ़ी भाषा में फि़ल्म बनानी है, और एक दिन अचानक 'सिने एडवांसÓ नामक मशहूर पत्रिका में घोषणा कर दी कि वह छत्तीसगढ़ी में एक फि़ल्म बनाने वाले हैं. फि़ल्मी पृष्ठ पर यह खबर क्या चली मनु नायक के करीबियों ने उन पर सवालों की बौछार कर दी, क्यों, कब और कैसे? लेकिन काफी सवालों का जवाब स्वयं मनु नायक के पास भी नहीं था, बस मन में यह ठान बैठे थे कि अपनी भूमि को कुछ लौटाना है. सारे सवालों की भीड़ में पहला जवाब मनु नायक को मिला म्यूजि़क डायरेक्टर मलय चक्रवर्ती. उन्होंने हामी भरी कि इस एक्सपेरिमेंट में वह उनके साथी होंगे. अमर गायक मु. रफी की आवाज में गाने की रिकार्डिंग की गयी और गीत लिखा डॉ. हनुमंत नायडू ने जिन्होंने छत्तीसगढ़ी गीतों पर डाक्टरेट किया था और संगीत दिया मलय चक्रवती ने. तब तक फिल्म का नाम तय नहीं हुआ था, इसके पश्चात छत्तीसगढ़ी गीतों में संदेश होने की वजह से नाम रखा गया 'कहि देबे भइया ला संदेशÓ. इस फिल्म की कहानी प्रेम- प्रसंग पर आधारित रखने का विचार हुआ लेकिन कालांतर में छूआछूत के खिलाफ स्टोरी लिखी गई तो नाम में 'भइया लाÓ हटाकर 'कहि देबे संदेशÓ रखा गया. नवंबर 1964 में फिल्म की शूटिंग छत्तीसगढ़ के रायपुर जिला स्थित पलारी ग्राम में हुई.16 अप्रैल 1965 को रायपुर, भाटापारा, बिलासपुर में प्रदर्शित इस फिल्म ने इतिहास रचने के साथ ही सुर्खियां भी बहुत बटोरी. उस दौर में फिल्म को लेकर भारी विवाद हुआ, ब्राह्मण और दलित की प्रेम कथा से लोग उद्वेलित हो गए और विरोध प्रदर्शन करने की धमकियां भी दी.
इसी वजह से तत्कालीन मनोहर टॉकिज कें मालिक पं. शारदा चरण तिवारी ने फिल्म के पोस्टर उतरवा दिए और फिल्म का प्रदर्शन रोक दिया. तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने विवाद के चलते फिल्म देखी और समाज में भेदभाव समाप्त करने के संदेश को सराहते हुए अखबारों में बयान दिया जिसके कारण सारे विवाद भी खत्म हो गए. इसके बाद मध्यप्र देश राज्य सरकार ने फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया तो सिनेमा घरों के संचालक इसे प्रदर्शित करने के लिए टूट पड़े. फिल्म ने सफलता पूर्वक प्रदर्शन कर इतिहास रचने के साथ ही छत्तीसगढ़ी सिनेमा में मनु नायक का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया गया. छत्तीसगढ़ की अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाले और फिल्मों के जबरदस्त शौक़ीन स्व.विजय कुमार पाण्डेय ने छत्तीसगढ़ के टूटते परिवार की कहानी को लेकर सन् 1965 में 'घर द्वारÓ बनाने का संकल्प लिया था.
स्व. विजय पाण्डेय 'घर द्वारÓ बनाने मुम्बई (उस समय बम्बई हुआ करती थी) से पूरी टीम लेकर छत्तीसगढ़ आए. मुम्बई के नामचीन कलाकार कानन मोहन, रंजीता ठाकुर एवं दुलारी ने 'घर द्वारÓ में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई थी. हिंदी फिल्मों के जाने-माने गायक मु. रफी एवं गायिका सुमन कल्याणपुर ने 'घर द्वारÓ के गीतों के लिए अपनी आवाजें दीं . 'घर द्वारÓ के गीत 'सुन-सुन मोर मया पीरा के संगवारी रेÓ, 'गोंदा फुलगे मोर राजाÓ एवं 'झन मारो गुलेलÓ आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हैं.'घर द्वारÓ फिल्म के बाद छत्तीसगढ़ी फिल्मों का निर्माण मानो थम सा गया लेकिन सन 2000 में छत्तीसगढ़ एक नया राज्य बन गया और एक बार फिर से फिल्म बनाने का दौर शुरू हुआ. सन 2000 में रिलीज़ हुई 'मोर छईहा भुईयाÓ ने सिनेमा घरों में धूम मचा दी. 20 -30 लाख के बजट में बनी इस फिल्म ने करोड़ों का व्यवसाय किया और लगभग 6 महीने तक यह फिल्म सिनेमा घरों में लगी रही.
छॉलीवुड की समस्याएं
अधिकांश छत्तीसगढ़ी फिल्म बुरी तरह पिटती हैं जिसके बहुत सारे कारण हैं जैसे कि फिल्मों में रचनात्मकता की कमी, सरकार से किसी प्रकार की सब्सिडी या सहयोग नहीं मिलना, छत्तीसगढ़ी फिल्मों को बढ़ावा देने हेतु किसी भी प्रकार का कोई आयोग या फिल्म विकास निगम का गठन नहीं होना जिसकी वर्षो से मांग बनी हुई है. छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ बोलने वाले लोगो को 'देहातीÓ अर्थात गांव वाला माना जाता है इसलिए छॉलीवुड अब तक एक यंग जनरेशन के दिल और दिमाग में नहीं उतर पा रहा है. अगर इन फिल्मों को बेहतर तरीके से बनाया जाये तो बेशक आने वाली पीढ़ी छत्तीसगढ़ी फिल्मो में जरूर दिलसचस्पी लेगी.छत्तीसगढ़ में सिनेमा घरों की कमी भी एक बड़ी समस्या है, प्रदेश सरकर ने तहसील स्तर पर सिनेमा घर बनाने का वादा किया था लेकिन अब तक उस वादे पर अमल नहीं हो सका, पीवीआर एवं मॉल में छत्तीसगढ़ी फिल्मों को लगाया नहीं जाता जिसके कारण अब तक छत्तीसगढ़ी फिल्में छोटे परदे पर ही प्रदर्शित हो रही हैं .
बॉलीवुड का नक़ल करने का आरोप
भारतीय सिनेमा का इतिहास 100 वर्ष पूर्ण कर चुका है तो छत्तीसगढ़ी सिनेमा ने भी 50 वर्ष पार कर लिए है. छत्तीसगढ़ी फिल्मों ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है. लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों पर हमेशा बॉलीवुड की नकल करने का आरोप लगता रहता है. अधिकांश छत्तीसगढ़ी फिल्मो में नयापन नहीं होता, इन छत्तीसगढ़ी फिल्मो में महज कट, कॉपी, पेस्ट कर दिया जाता है. छत्तीसगढ़ी फिल्म 'हीरो नंबर 1Ó राजेश खन्ना एवं गोविंदा की बॉलीवुड फिल्म स्वर्ग की कार्बन कॉपी है. छत्तीसगढ़ी सिनेमा की विफलता का एक मुख्य कारण लोगो की मानिसकता भी मानी जा सकती हैं, शहर के लोगों को छत्तीसगढ़ी ना समझ आती हैं और ना ही बोलनी, ऐसे में यह भ्रम बन गया है कि छत्तीसगढ़ी सिर्फ गांव के लोग (देहाती ) लोग ही बोलते हैं, शहर के लोग भी इस भाषा को सीखना और समझना चाहते हैं बशर्ते कोई सही और बेहतर तरीके से बताए. शहर के लोगों को कहना हैं कि वे छत्तीसगढ़ी मूवी देखना तो चाहते हैं लेकिन उन्हें छत्तीसगढ़ी समझ नहीं आती तथा इन फिल्मो में रचनात्मकता कि बहुत कमी होती हैं.
मजेदार होते हैं नाम
छत्तीसगढ़ी फिल्मों के नाम बेहद मजेदार होते है जैसे कि टूरि नंबर 1 (टुरी मतलब लड़की ) , लेडग़ा नंबर 1 (लेडग़ा मतलब मंदबुद्धि ),झन भूलो मां – बाप ला (अपने माता -पिता को मत भूलना) , राजा छत्तीसगढिय़ा, महू दीवाना – तहू दीवानी , (मैं दीवाना -तू दीवानी ) आधा पागल, डिफाल्टर नंबर एक , लैला टीप टॉप, गोलमाल आदि .यह देखा जाना बाकी है कि क्या हम प्रतिभा और विशेषज्ञता के खजाने की निधि को पहचानना शुरू करेंगे और क्षेत्रीय फिल्मों को प्रोत्साहित करेंगे और स्वयं की उपलब्धि को बढ़ावा देंगे. छत्तीसगढ़ी सिनेमा को अगर बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया जाये तो बेशक यह कला, साहित्य क्षेत्रीय सिनेमा और लोक कलाकारों के लिए सुनहरा अवसर होगा.
आधुनिकता की दौड़ में गुम हो
रही छत्तीसगढ़ी फिल्में
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की परिकल्पना के आकार लेने के पूर्व ही छत्तीसगढ़़ी भाषा में बनी फिल्में काफी मशहूर हुई थी, लेकिन मल्टीप्लेक्स के मौजूदा दौर में इनके दर्शकों की संख्या कम होती जा रही है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों के शुरुआती दौर में लोकप्रियता का आलम यह था कि हॉलीवुड और बॉलीवुड की तर्ज पर छत्तीसगढ़़ी फिल्मों के लिए छॉलीवुड नाम चल पड़ा था। क्षेत्रीयता के दृष्टिकोण से टॉलीवुड कहे जाने वाले दक्षिण भारत की तेलुगू , तमिल या मलयालम भाषा में बनी फिल्में हो या कॉलीवुड के नाम से प्रचलित पश्चिम बंगाल की बंगलाभाषी फिल्मों की तरह छत्तीसगढ़़ी फिल्में अपने इस दौर को कायम नहीं रख सकीं । वर्ष 1964 में पहली छत्तीसगढ़़ी फिल्म ' कहि देबे संदेशÓ बनी थी । सवर्ण वर्ग की नायिका और अनुसूचित जाति के युवक के प्रेम एवं विवाह के ताने-बाने से बुनी इस फिल्म ने तत्कालीन दौर में काफी लोकप्रियता हासिल की थी, हालांकि इसे समाज के एक धड़े का विरोध भी झेलना पड़ा था । कुछ साल के अंतराल के बाद 1970 में दूसरी छत्तीसगढ़़ी फिल्म 'घरद्वारÓ रिलीज हुई । पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म भी सफल रही ।
छत्तीसगढ़़ी फिल्मों के इतिहास में सर्वाधिक सफल फिल्म लेखक , निर्देशक सतीश जैन की 'मोर छंईहा भूंईयाÓ रही । इस फिल्म ने बॉलीवुड के राजश्री प्रोडक्शन द्वारा ग्रामीण परिवेश पर बनी फिल्म 'नदिया के पारÓ का रिकॉर्ड तोड़ते हुए बिलासपुर सहित कई शहरों में सिल्वर जुबली मनाई । छत्तीसगढ़ सरकार ने इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार से नवाजा । एक नवंबर 2000 को अलग राज्य बनने के बाद क्षेत्रीय फिल्म निर्माताओं में छत्तीसगढ़़ी फिल्मों की पृथक पहचान स्थापित करने की प्रेरणा बलवती हुई । उस समय 'मोर छंईहा भूंईयाÓ फिल्म की सफलता का नशा यहां के फिल्म निर्माताओं और कलाकारों पर छाया हुआ था। फिल्मकार प्रेम चंद्राकर ने छत्तीसगढ़़ी फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता अनुज शर्मा और उडिय़ा फिल्म अभिनेत्री प्रीति मिश्रा को लेकर 'मया देदे मया लेलेÓ बनाई । फिल्म की शूटिंग पुरी के मनोरम समुद्र तट और छत्तीसगढ़ में भिलाई एवं गरियाबंद जैसे स्थानों पर की गयी। हिन्दी फिल्मों की प्रेम कहानियों की कथावस्तु पर आधारित यह फिल्म अपने गीत-संगीत , हास्य एवं खूबसूरत लोकेशन की बदौलत दर्शकों की भीड़ खींचने में कामयाब रही। फिल्म को सर्वश्रेष्ठ नायिका एवं सर्वश्रेष्ठ हास्य के लिए छत्तीसगढ़ सरकार से अवार्ड भी मिला। 'मोर छंईहा भूंईयाÓ और 'मया देदे मया लेलेÓ की सफलता को देखकर छत्तीसगढ़़ी फिल्में बनाने की होड़ शुरू हो गयी । एक एक करके प्रीत की जंग, तुलसी चौरा, मयारू भौजी, जय महामाया, तोर मया के मारे , लेडग़ा नंबर वन, मोर धरती मैय्या और परदेसी के मया जैसी कई फिल्में आईं। इनमें से एकाध फिल्में ही कुछ स्थानों पर एक माह बमुश्किल चल पाई । कई तो इससे भी कम समय में पर्दे से उतर गईं।
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- अरुण कुमार बंछोर
भारत में फिल्म उद्योग सबसे प्रसिद्ध, व्यापक और प्रशंसित आकर्षणों में से एक है. हालांकि, यह मानना एक गंभीर गलती है कि मुंबई आधारित बॉलीवुड ही ऐसा केंद्र है जहां पर सभी फिल्में रिलीज होती हैं. क्षेत्रीय फिल्में भी अब आगे बढ़ रही हैं तथा देश और दुनिया भर में अपने प्रदर्शन के दम पर दर्शकों के दिलों पर कब्जा कर रही हैं. सैराट (मराठी), चौथी कूट (पंजाबी), रॉन्ग साइड राजू (गुजराती), क्षणम (तेलगु) आदि क्षेत्रीय फिल्मों ने यह सिद्ध कर दिया है कि सिनेमा लाइन में क्षेत्रीय फिल्मों का भी वर्चस्व है.
इसी वजह से तत्कालीन मनोहर टॉकिज कें मालिक पं. शारदा चरण तिवारी ने फिल्म के पोस्टर उतरवा दिए और फिल्म का प्रदर्शन रोक दिया. तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने विवाद के चलते फिल्म देखी और समाज में भेदभाव समाप्त करने के संदेश को सराहते हुए अखबारों में बयान दिया जिसके कारण सारे विवाद भी खत्म हो गए. इसके बाद मध्यप्र देश राज्य सरकार ने फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया तो सिनेमा घरों के संचालक इसे प्रदर्शित करने के लिए टूट पड़े. फिल्म ने सफलता पूर्वक प्रदर्शन कर इतिहास रचने के साथ ही छत्तीसगढ़ी सिनेमा में मनु नायक का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया गया. छत्तीसगढ़ की अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाले और फिल्मों के जबरदस्त शौक़ीन स्व.विजय कुमार पाण्डेय ने छत्तीसगढ़ के टूटते परिवार की कहानी को लेकर सन् 1965 में 'घर द्वारÓ बनाने का संकल्प लिया था.
स्व. विजय पाण्डेय 'घर द्वारÓ बनाने मुम्बई (उस समय बम्बई हुआ करती थी) से पूरी टीम लेकर छत्तीसगढ़ आए. मुम्बई के नामचीन कलाकार कानन मोहन, रंजीता ठाकुर एवं दुलारी ने 'घर द्वारÓ में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई थी. हिंदी फिल्मों के जाने-माने गायक मु. रफी एवं गायिका सुमन कल्याणपुर ने 'घर द्वारÓ के गीतों के लिए अपनी आवाजें दीं . 'घर द्वारÓ के गीत 'सुन-सुन मोर मया पीरा के संगवारी रेÓ, 'गोंदा फुलगे मोर राजाÓ एवं 'झन मारो गुलेलÓ आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हैं.'घर द्वारÓ फिल्म के बाद छत्तीसगढ़ी फिल्मों का निर्माण मानो थम सा गया लेकिन सन 2000 में छत्तीसगढ़ एक नया राज्य बन गया और एक बार फिर से फिल्म बनाने का दौर शुरू हुआ. सन 2000 में रिलीज़ हुई 'मोर छईहा भुईयाÓ ने सिनेमा घरों में धूम मचा दी. 20 -30 लाख के बजट में बनी इस फिल्म ने करोड़ों का व्यवसाय किया और लगभग 6 महीने तक यह फिल्म सिनेमा घरों में लगी रही.
छॉलीवुड की समस्याएं
अधिकांश छत्तीसगढ़ी फिल्म बुरी तरह पिटती हैं जिसके बहुत सारे कारण हैं जैसे कि फिल्मों में रचनात्मकता की कमी, सरकार से किसी प्रकार की सब्सिडी या सहयोग नहीं मिलना, छत्तीसगढ़ी फिल्मों को बढ़ावा देने हेतु किसी भी प्रकार का कोई आयोग या फिल्म विकास निगम का गठन नहीं होना जिसकी वर्षो से मांग बनी हुई है. छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ बोलने वाले लोगो को 'देहातीÓ अर्थात गांव वाला माना जाता है इसलिए छॉलीवुड अब तक एक यंग जनरेशन के दिल और दिमाग में नहीं उतर पा रहा है. अगर इन फिल्मों को बेहतर तरीके से बनाया जाये तो बेशक आने वाली पीढ़ी छत्तीसगढ़ी फिल्मो में जरूर दिलसचस्पी लेगी.छत्तीसगढ़ में सिनेमा घरों की कमी भी एक बड़ी समस्या है, प्रदेश सरकर ने तहसील स्तर पर सिनेमा घर बनाने का वादा किया था लेकिन अब तक उस वादे पर अमल नहीं हो सका, पीवीआर एवं मॉल में छत्तीसगढ़ी फिल्मों को लगाया नहीं जाता जिसके कारण अब तक छत्तीसगढ़ी फिल्में छोटे परदे पर ही प्रदर्शित हो रही हैं .
बॉलीवुड का नक़ल करने का आरोप
भारतीय सिनेमा का इतिहास 100 वर्ष पूर्ण कर चुका है तो छत्तीसगढ़ी सिनेमा ने भी 50 वर्ष पार कर लिए है. छत्तीसगढ़ी फिल्मों ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है. लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों पर हमेशा बॉलीवुड की नकल करने का आरोप लगता रहता है. अधिकांश छत्तीसगढ़ी फिल्मो में नयापन नहीं होता, इन छत्तीसगढ़ी फिल्मो में महज कट, कॉपी, पेस्ट कर दिया जाता है. छत्तीसगढ़ी फिल्म 'हीरो नंबर 1Ó राजेश खन्ना एवं गोविंदा की बॉलीवुड फिल्म स्वर्ग की कार्बन कॉपी है. छत्तीसगढ़ी सिनेमा की विफलता का एक मुख्य कारण लोगो की मानिसकता भी मानी जा सकती हैं, शहर के लोगों को छत्तीसगढ़ी ना समझ आती हैं और ना ही बोलनी, ऐसे में यह भ्रम बन गया है कि छत्तीसगढ़ी सिर्फ गांव के लोग (देहाती ) लोग ही बोलते हैं, शहर के लोग भी इस भाषा को सीखना और समझना चाहते हैं बशर्ते कोई सही और बेहतर तरीके से बताए. शहर के लोगों को कहना हैं कि वे छत्तीसगढ़ी मूवी देखना तो चाहते हैं लेकिन उन्हें छत्तीसगढ़ी समझ नहीं आती तथा इन फिल्मो में रचनात्मकता कि बहुत कमी होती हैं.
मजेदार होते हैं नाम
छत्तीसगढ़ी फिल्मों के नाम बेहद मजेदार होते है जैसे कि टूरि नंबर 1 (टुरी मतलब लड़की ) , लेडग़ा नंबर 1 (लेडग़ा मतलब मंदबुद्धि ),झन भूलो मां – बाप ला (अपने माता -पिता को मत भूलना) , राजा छत्तीसगढिय़ा, महू दीवाना – तहू दीवानी , (मैं दीवाना -तू दीवानी ) आधा पागल, डिफाल्टर नंबर एक , लैला टीप टॉप, गोलमाल आदि .यह देखा जाना बाकी है कि क्या हम प्रतिभा और विशेषज्ञता के खजाने की निधि को पहचानना शुरू करेंगे और क्षेत्रीय फिल्मों को प्रोत्साहित करेंगे और स्वयं की उपलब्धि को बढ़ावा देंगे. छत्तीसगढ़ी सिनेमा को अगर बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया जाये तो बेशक यह कला, साहित्य क्षेत्रीय सिनेमा और लोक कलाकारों के लिए सुनहरा अवसर होगा.
आधुनिकता की दौड़ में गुम हो
रही छत्तीसगढ़ी फिल्में
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की परिकल्पना के आकार लेने के पूर्व ही छत्तीसगढ़़ी भाषा में बनी फिल्में काफी मशहूर हुई थी, लेकिन मल्टीप्लेक्स के मौजूदा दौर में इनके दर्शकों की संख्या कम होती जा रही है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों के शुरुआती दौर में लोकप्रियता का आलम यह था कि हॉलीवुड और बॉलीवुड की तर्ज पर छत्तीसगढ़़ी फिल्मों के लिए छॉलीवुड नाम चल पड़ा था। क्षेत्रीयता के दृष्टिकोण से टॉलीवुड कहे जाने वाले दक्षिण भारत की तेलुगू , तमिल या मलयालम भाषा में बनी फिल्में हो या कॉलीवुड के नाम से प्रचलित पश्चिम बंगाल की बंगलाभाषी फिल्मों की तरह छत्तीसगढ़़ी फिल्में अपने इस दौर को कायम नहीं रख सकीं । वर्ष 1964 में पहली छत्तीसगढ़़ी फिल्म ' कहि देबे संदेशÓ बनी थी । सवर्ण वर्ग की नायिका और अनुसूचित जाति के युवक के प्रेम एवं विवाह के ताने-बाने से बुनी इस फिल्म ने तत्कालीन दौर में काफी लोकप्रियता हासिल की थी, हालांकि इसे समाज के एक धड़े का विरोध भी झेलना पड़ा था । कुछ साल के अंतराल के बाद 1970 में दूसरी छत्तीसगढ़़ी फिल्म 'घरद्वारÓ रिलीज हुई । पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म भी सफल रही ।
छत्तीसगढ़़ी फिल्मों के इतिहास में सर्वाधिक सफल फिल्म लेखक , निर्देशक सतीश जैन की 'मोर छंईहा भूंईयाÓ रही । इस फिल्म ने बॉलीवुड के राजश्री प्रोडक्शन द्वारा ग्रामीण परिवेश पर बनी फिल्म 'नदिया के पारÓ का रिकॉर्ड तोड़ते हुए बिलासपुर सहित कई शहरों में सिल्वर जुबली मनाई । छत्तीसगढ़ सरकार ने इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार से नवाजा । एक नवंबर 2000 को अलग राज्य बनने के बाद क्षेत्रीय फिल्म निर्माताओं में छत्तीसगढ़़ी फिल्मों की पृथक पहचान स्थापित करने की प्रेरणा बलवती हुई । उस समय 'मोर छंईहा भूंईयाÓ फिल्म की सफलता का नशा यहां के फिल्म निर्माताओं और कलाकारों पर छाया हुआ था। फिल्मकार प्रेम चंद्राकर ने छत्तीसगढ़़ी फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता अनुज शर्मा और उडिय़ा फिल्म अभिनेत्री प्रीति मिश्रा को लेकर 'मया देदे मया लेलेÓ बनाई । फिल्म की शूटिंग पुरी के मनोरम समुद्र तट और छत्तीसगढ़ में भिलाई एवं गरियाबंद जैसे स्थानों पर की गयी। हिन्दी फिल्मों की प्रेम कहानियों की कथावस्तु पर आधारित यह फिल्म अपने गीत-संगीत , हास्य एवं खूबसूरत लोकेशन की बदौलत दर्शकों की भीड़ खींचने में कामयाब रही। फिल्म को सर्वश्रेष्ठ नायिका एवं सर्वश्रेष्ठ हास्य के लिए छत्तीसगढ़ सरकार से अवार्ड भी मिला। 'मोर छंईहा भूंईयाÓ और 'मया देदे मया लेलेÓ की सफलता को देखकर छत्तीसगढ़़ी फिल्में बनाने की होड़ शुरू हो गयी । एक एक करके प्रीत की जंग, तुलसी चौरा, मयारू भौजी, जय महामाया, तोर मया के मारे , लेडग़ा नंबर वन, मोर धरती मैय्या और परदेसी के मया जैसी कई फिल्में आईं। इनमें से एकाध फिल्में ही कुछ स्थानों पर एक माह बमुश्किल चल पाई । कई तो इससे भी कम समय में पर्दे से उतर गईं।
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