रविवार, 21 जनवरी 2018

भीड़ इकट्ठा करने की हुनर भूल चुके है हम

भीड़ इकट्ठा करने की हुनर भूल चुके है हम -पवन कुमार गुप्ता
 - अरुण बंछोर
बचपन से एक्टर बनने का ख्वाब ,और बना भी । मैं बहोत सारे थियटर किये और बहोत कामयाबी भी पाई. उस समय हम लोग थियटर में एक्टिंग करते थे और बहुत अच्छा लगता था।  कई बार हम लोगो ने टिकट बेच कर शो किये और पब्लिक आती थी। नुकड़ में चिल्ला चिल्ला कर कहते थे नाटक होगा नाटक आज यहां पर नाटक होगा और भीड़ इकट्ठा हो जाती थी। लोग आकर मिलते थे.गले लगाते थे. लेकिन आज सब कुछ खत्म हो गया है।


आज लोगो के पास टाइम नही है। या ये कहे कि हम भीड़ इकट्ठा  करने की हुनर भूल चुके है  एक्टर हु एक्टिंग का कीड़ा निकलता नही था सोचा आज कल छत्तीसगढ़ में फिल्मे बनती है. वहां कुछ किया जाए और मैं फिल्मो में काम पाने के लिए संघर्स करने लगा.सुरुवात में बहुत तकलीफ आई। लेकिन संघर्स कामयाब रहा।  एलबम का दौर था और कॉमेडी फिल्म जो आधे या एक घंटे की होती है ऐसे फिल्मे बनती थी। सुरुवात में एक फि़ल्म आई ,,मोर छइयां भुइया। फि़ल्म ने बहुत अच्छा कारोबार की ,,,लोगो मे जोश देखने को मिली छत्तीसगढ़ अपना लगने लगा और फिर सुरु हुआ छत्तीसगढ़ फिल्मो का शिलशिला उस दौरान कुछ अच्छी फिल्में भी आई  ,,, लोग बहुत जोश में थे और होस खो बैठे और बाहत सारि फिल्मे मुह के बल गिरने लगी। ,प्रोड्यूशर डायरेक्टर समझ नही पा रहे थे कि फिल्मे तो अछि बन रही है लेकिन चल क्यो नही रही। और सभी उधेड़ बन में लग गए कुछ लोगो ने हल खोजा और लोगो को आगह भी किया लेकिन लोगो का काम है सुन्ना और दूसरी कान से निकल देना। कुछ लोगो तो खुजली मिटाने लगे ,,,फि़ल्म। हिट हो न हो मैं फि़ल्म बनाऊंगा। स्टोरी की भी चयन अच्छा नही होता था। कुछ तो ऐसे लोग भी थे जिन्हें फि़ल्म बनती कैसे है ओ भी पता नही था कुछ लोग प्रोड्यूशर को मुर्गा जैसे शब्दों का भी स्तमाल करते थे और फिल्मो का अंबार लगता गया और फिल्मे फ्लाप होती गई। उस समय कुछ सूझ बूझ वाले व्यक्ति फिल्मे सुरु किये विजय गुमगावकर जी की तीजा के लुगरा  सतीश जैन जी की माया मनोज वर्मा जी की महु दीवाना तहु दीवानी फिल्मे हिट साबित हुई  और फिल्मो का क्रेज जो खत्म हो रहा था जो फिर से  वापस हो गया फिर तीसरा दौर आया। और प्रोड्यूशर ही हीरो बनने लगा और फिल्मो की स्थिति फिर गिरती गई।  कलाकारों से काम करवाना पैसा नही देना अब लोगो ने देखा कि फिल्मो से पैसा नही निकल रहा है तो  फिल्मो का बजट करने में लग गए  फिर भी बात नही बनी फिर भी पैसा नही निकलता था। फिर लोगो ने सोचा कि यार कम से कम पैसे में फि़ल्म बनाने से भी पैसा नही निकल रहा है। ,तो लोगो ने सरकार को मुद्दा बनाया की फिल्में इस कारण नही चल रही है क्यो की यह टॉकीज की कमी है। ,और लगे आंदोलन करने मीटिंग करने। लेकिन एक बार भी लोगो ने अपने अंदर नही झाँका की हम कहा कमजोर है। पब्लिक तो पहले आती थी अब क्यो नही आती कभी किसी ने जानने की कोशिश नही की.दुकान तो खोला मंगर बगर प्लानिंग के मार्किट था ही नही और लोगोने कहा ग्राहक क्यो नही आ रहे है.दोस्तो जब  मोर छइयां भुइया आई थी तो लोगो को नया उत्साह था और उस उत्साह की सुरुवात तो अच्छी हुई थी लेकिन उस उत्साह में आप लोग वही परोसने लगे जो पहले से खा चुके है अब  कुछ नया चाहिए था ,तो लोगो ने समझा नया का मतलब क्या और उन्हें ये समझ मे आया कि कॉमेडी करना चाहिए और कॉमेडी करने लगे ,,,,लेकिन उन्हें ये भी मालूम नही था कि कॉमेडी क्या होता है और कॉमेडी के जगह फूहड़ता देने लगे.

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